बहुआयामी राहत की जरुरत


 


 


इस समय पूर्ण बंदी से मुश्किलों में घिरे देश के करोड़ों गरीबों, श्रमिकों और लाखों उद्योगों को संभालने के लिए बहुआयामी राहत और प्रोत्साहन पैकेज की जरूरत अनुभव की जा रही है। इस परिप्रेक्ष्य मेंदो महत्त्वपूर्ण नई पहल जरूरी हैं। एक, सरकार उद्योग और कारोबार को बचाने के लिए व्यापक राहत पैकेज दे और दूसरा गरीब और श्रमिक वर्ग के लिए व्यापक कारपोरेट राहत मिले। गौरतलब है कि कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने के लिए की गई बंदी के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है। छोटे-बड़ेसभी उद्योग गंभीर संकट में फंस गए हैं। देश के ज्यादातर कारखानों में उत्पादन बंद है, खासतौर से अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले छोटे और मझौले ज्यादा संकट में हैं। बंदी की वजह से इनमें कोई काम नहीं हो रहा। कारोबारियों के सामने नगदी का संकट है और कामगारों की वेतन जैसी देनदारियों का संकट अलग से। उद्योग-कारोबार पर बढ़ते हुए प्रतिकूल प्रभाव के बारे में एक के बाद एक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और औद्योगिक संगठनों की रिपोर्ट आ रही हैं। इनमें सरकार को विशेष आर्थिक राहत पैकेज देने का सुझाव दिया जा रहा है। आठ अप्रैल को उद्योग संगठनों भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) और भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल (एसोचैम) ने देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के लिए सरकार से करीब दो सौ से तीन सौ अरब डॉलर यानी करीब पंद्रह लाख करोड़ से बाईस लाख करोड़ रुपए के प्रोत्साहन पैकेज की मांग की है। इन संगठनों ने सरकार से यह भी कहा है कि अर्थव्यवस्था को बचाने और मांग पैदा करने के लिए आगामी तीन महीनों तक जीएसटी की दरे आधी कर दी जाएं। इन संगठनों ने रिजर्व बैंक से भी मांग की है कि ब्याज दरों में एक फीसद की कटौती और की जाए। भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) की एक रिपोर्ट बता रही है कि देशव्यापी बंदी का अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव दिख रहा है। इससे उद्योगों के राजस्व में भारी गिरावट आ रही है। रोजगार पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है, लाखों लोगों का काम छिन गया है। स्थिति यह है कि उद्योगों के उत्पादन से वितरण तक सभी चरणों में कदम-कदम पर मुश्किलें दिखाई दे रही हैं। ऐसे में उद्योगों को बचाने के लिए जरूरी है कि सरकार जल्दी ही विशेष और व्यापक राहत पैकेज घोषित करे। यदि हम अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव का अध्ययन करें तो पाएंगे कि पिछले साल मार्च में देश में वाहनों की बिक्री में पचास फीसद की कमी आई। जीएसटी की प्राप्ति में बीस फीसद की गिरावट आई। पेट्रोल और डीजल की खपत में बीस फीसद तक की गिरावट आई। बिजली की खपत में तीस फीसद की कमी आई। स्थिति यह है कि बंदी के कारण आर्थिक गतिविधियों में बड़ा संकुचन आ गया है। देश के कुल कार्यबल में गैर संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी नब्बे फीसद है। साथ ही देश के कुल कार्यबल में बीस फीसद लोग रोजाना मजदुरी प्राप्त करने वाले हैं। इन सबके कारण देश में चारों ओर रोजगार संबंधी चिंताएं और अधिक उभरती दिखाई दे रही हैं। बंदी खत्म होने के बाद भी स्थितियों में सुधार धीरे-धीरे ही आएगा। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में साल भर का वक्त लग सकता है। निश्चित रूप से बंद पड़ी कंपनियों को दोबारा काम शुरू करने में समय लगेगा। उद्योग कारोबार के अनुकूल वातावरण के लिए भी लंबा समय लगेगा। बंदी के कारण रोजगार खोने वाले लोगों के परिवारों की क्रय शक्ति बढ़ने में समय लगेगा। इसके अलावा निवेश संबंधी गतिविधियों मेंतेजी के लिए लंबे इंतजार करना पड़ सकता है। बैंकों के ऋण वितरण में रुकावटें दूर करने और बैंकों की सामान्य कार्यप्रणाली बहाल करना अर्थव्यवस्था की बड़ी चुनौती है। देश की अर्थव्यवस्था और कारोबारी जगत का यह परिदृश्य अर्थव्यवस्था और उद्योगों को बचाने के लिए सरकार से व्यापक राहत पैकेज की मांग को न्यायसंगत बनाता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि सरकार ने कोरोना को प्राकृतिक आपदा घोषित करते हुए देश की कंपनियों को विकल्प दिया है कि वे कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) का पैसा कोरोना वायरस से प्रभावित लोगों और गरीबों के कल्याण पर खर्च कर सकती हैं। दरअसल सरकार की इस अच्छी पहल के साथ यह भी जरूरी दिखाई दे रहा है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में अमीर वर्ग और विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों ने जिस तरह लाखों करोड़ों रुपए का दान कोरोना पीड़ितों को राहत देने के लिए दिया है, उसी तरह भारत के अमीर तबके को भी आगे आना होगा। बंदी से देश के असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों और गरीबों की मुश्किलें सबसे ज्यादा बढ़ी हैं। देश के करीब पैंतालीस करोड़ कामगारों में नब्बे फीसद लोग असंगठित क्षेत्र से हैं। असंगठित क्षेत्र के लोगों को काम और वेतन की पूरी सुरक्षा नहीं होती है। इतना ही नहीं, इन्हें अन्य सामाजिक सुरक्षा सुविधाएं नहीं मिलती हैं। देश में करीब इक्कीस फीसद लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। डेढ़ करोड़ से अधिक लोग प्रवासी मजदूर हैं। ऐसे में इस समय कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत स्वास्थ्य, कुपोषण और भूख जैसे संकट को कम करने के लिए सीआरआर व्यय बढ़ने के लिए प्राथमिकता दी जानी जरूरी है। उल्लेखनीय है कि पांच सौ करोड़ रुपए या इससे ज्यादा की सकल पूंजी या पांच करोड़ रुपए या इससे ज्यादा मुनाफे वाली कंपनियों को पिछले तीन साल के अपने औसत मुनाफे का दो फीसद हिस्सा हर साल सीएसआर के तहत उन निर्धारित गतिविधियों पर खर्च करना होता है, जो समाज के पिछड़े या वंचित लोगों के कल्याण के लिए जरूरी हैं। सीएसआर के तहत प्राकृतिक आपदा, भूख, गरीबी और कुपोषण पर नियंत्रण, कौशल प्रशिक्षण, शिक्षा को बढ़ावा, पर्यावरण संरक्षण, खेलकूद प्रोत्साहन, मातृ एवं शिशु स्वास्थ्य, तंग बस्तियों के विकास आदि पर खर्च करना होता है। हालांकि यह चिंता का विषय है कि बड़ी संख्या में कंपनियां सीएसआर के उद्देश्य के अनुरूप खर्च नहीं करती हैं। ऐसे में अभी तक जो कंपनियां सीएसआर को रस्म अदायगी मान कर उसके नाम पर कुछ भी कर देती थीं, उनके लिए अब मुश्किल हो सकती है। सीएसआर के मोर्चे पर सरकार सख्ती करने जा रही है। अब कंपनियां केवल यह कह कर नहीं बच पाएंगी कि उन्होंने सीएसआर पर पर्याप्त रकम खर्च की है। अब उन्हें बताना पड़ेगा कि खर्च किस काम में किया गया, उसके परिणाम क्या रहे और समाज पर उसका कोई सकारात्मक असर पड़ा या नहीं। यह भी बताना होगा कि क्या यह खर्च कंपनी से जुड़े किसी संगठन पर हो रहा है। अब सरकार द्वारा कंपनियों के सीएसआर के बारे में नए नियमों को ध्यान में रखना होगा। इन नियमों के तहत सीएसआर खर्च के तहत निचले स्तर पर शामिल कंपनियों के लिए खुलासे की न्यूनतम बाध्यता होगी, खर्च की रकम बढ़ने के साथ-साथ अधिक से अधिक जानकारी देनी होगी। जिस तरह अमेरिका, इटली और जापान जैसे देशों ने अपने यहां कर्मचारियों को बेरोजगारी लाभ देने की योजना बनाई है, उसी तरह भारत सरकार को भी ऐसी योजनाएं बनाने की जरूरत है। निश्चित रूप से ऐसे रणनीतिक कदमों से रोजगार चुनौतियों का सामना किया जा सकेगा और अर्थव्यवस्था को मंदी के दौर से बचाया जा सकेगा