जल समाधि की गाथा

भुनसार हुई। सूरज जैसे ही क्षितिज से झांकने लगा कि मंदिर के ओटले पर लोगों का आना शुरू हो गया। गांव के सबसे बुजुर्ग चंप्या दाजी ने माथे की पगड़ी को खोला व कसकर बांध ली। अपनी बंडी की बटनों को नीचे से ऊपर की ओर एक-एक करके खोला। बंडी को पंखों-सा अपने कंधों पर फैला लिया। सुबह की गुनगुनी धूप शरीर को राहत दे रही थी। मंदिर का दरवाजा पूर्व की ओर खुलता था। जब दरवाजा पूर्व की ओर होगा तो दरवाजे के ठीक पहले ओटला होना लाजिमी है। मंदिर की छत को संभालने के लिए तेल पिलाई गई लकड़ी के मजबूत खंभों से दाजी टिक गए। खंभे की अहमियत छत के अलावा दाजी ही जाने या फिर वे बच्चे जो मंदिर के ओटले पर उनसे दिन भर झमते रहते हैं। सुबह की सुरज की लालिमा पूर्व से पश्चिम की ओर कल-कल करती सदानीरा नर्मदा माई को छूकर गांव की गलियों को रोशन करती। माई! हम सबकी माई! नर्मदा माई! गांव के दक्षिण में सदानीरा का प्रवाह जारी है। जिस तरह से सुरज बिना नागा किए रोजाना उगता है वैसी ही माई कल-कल बहती रहती है। सूरज को जरूर बादल अपने आगोश में छिपा ले। उसे ग्रहण लग जाए या बरसात में दिनों-महीनों सफेद-काले बादल सूरज की किरणों को अपनी भुजाओं में कैद कर ले। लेकिन गांव के लोग बताते हैं कि माई बिना नागा किए अबाध गति से बह रही है। बादल नर्मदा माई को यौवन प्रदान करते हैं। इसलिए कि वो बरसते भी हैं। नर्मदा माई दूर-दूर के घर की छतों, गली, खेतों, जंगलों व हर चप्पे-चप्पे के पानी को अपने में समा लेती है। माई का दिल विशाल है। जितने मौसम और उनके दिन, उतने ही नर्मदा माई के स्वरूप। यही विविध स्वरूप सुकून देते हैं। इन सुकून की कीमत को रुपयों-पैसों में आंकना, गुस्ताखी ही कहा जाएगा। शुक्ल पक्ष की रातों में नर्मदा माई चांदी-सी चमकती है। इसके उलट कृष्णपक्ष की रातें नर्मदा माई को अंधेरे से सराबोर कर देती हैं। यह सौंदर्य का एक अनूठा पहलू है। गांव में विविध किस्म के लोग । चाहे उनके बीच असहमतियों के बादल मंडराते हों लेकिन नर्मदा माई की आस्था के प्रति सभी की एक ही मान्यता। माई की कल-कल की ध्वनि ने गांव में कभी हिंसा की ध्वनि को हावी नहीं होने दिया। परकम्मा वासियों के लिए गांव ने एक ठिकाना बना दिया था। खासकर बरसात का सावन, बरसात के उत्तरार्ध का कार्तिक व वसंत के उत्तरार्ध में वैशाख में यहां का वातावरण भक्ति रस में डूबने लग जाता है। गांव के लगभग 3000 मानव पात्र हैं। हर पात्र निराला। हर पात्र जीवंत । जुझारू व मेहनती। गांव की पारंपरिक बनावट, जिसमें हर तरह की व्यवस्था सदियों से मौजूं है जो गांव को चलाने के लिए जरूरी है। गांव में तरह-तरह के काम-धंधे हैं। ज्यादातर खेती, खेतीहर मजदूर और छोटे-मोटे समाज को चलाने वाले काम। अब तक ओटले पर और भी स्त्री-पुरुष आ चुके हैं। झाकरूड़ वाली माय ने पूरब की ओर देख नर्मदा माई व सूरजनारायण को एक साथ नमन किया। गलियों में चहल-पहल बढ़ती जा रही है। बैलों के गलों की घंटियां माहौल में मिठास घोल रही । पास के पीपल के पेड़ पर बुलबुल, तोते, मैना व कई तरह की चिड़ियाएं चहचहा रही हैं। सदियों पुरानी बावड़ी की दीवार में पनपा गूलर का पेड़ बंदरों से लेकर कई पक्षियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। घरों की कच्ची दीवारों में बने छेदों में गौरेयाएं चहचहा रही हैं। तभी एक नेवला मौका देखकर गली को पार कर गया। उसके पीछे नेवले का भरा-पूरा परिवार उसका अनुसरण करके दूसरे घर में घुस गया। वे चारों के चारों भी एक-एक करके आ चुके हैं। हरेक ने एक लंबी तान ली। कानों को हिलाया और और अपने बदन को यहां-वहां चाटकर साफ करने लगे। कुल जमा चार पात्र। वे और बाकी गूलर, पीपल के पेड़ों पर चहचहा रहे व गलियों में घूमते 'नेवले' वे पात्र हैं जो औपचारिक रूप से गांव की जनसंख्या में शामिल नहीं होते। सरकार की फाइलों में तो मनुष्य ही होते हैं। चूंकि ये श्वान हैं इसलिए इन्हें सेपियन्स के साथ कैसे रखा जा सकता है। एक वक्त था तब श्वान का साथ सेपियन्स ने पकड़ा। श्वान की जरूरत सेपियन्स को थी और दोनों ने साथ-साथ चलने की कसमें खाई। श्वान में सेपियन्स के प्रति वफादारी के गुण पल्लवित होते चले गए। लिहाजा श्वान ने जो कसम खाई थी उस पर वह आज भी कायम है। एक सफेद- चितकबरा, दूसरा बालूई रंग का और दो स्याह काले। एक के माथे पर आंख के ठीक ऊपर दो पीले रंग के धब्बे जो असली आंखों को मात दे रही है। दूसरे काले की टांगें सफेद-चितकबरी मगर पूंछ अधिक झबरीली। हां, ये चारों इसी गांव के निवासी हैं। गबरू, डॉन, माइकल व मंगइनके नाम हैं। जब माइकल को पुकारा जाए तो वह कहीं भी आसपास हो तो पूंछ हिलाते हुए आ जाता है। ये नाम गांववासियों ने ही इन्हें दिए हैं। चारों के चारों चुस्त, मस्त व मुस्तैद। बस उनके पास मानवीय भाषा का अकाल है बाकी तो वे चौपाया होते हुए भी हर तरह से गांववासियों के चहेते। वे एक ही मां के जाये हैं। इनकी मां भी यहीं जन्मी और मरीं। मंदिर के ओटले पर मानो नन्दी का रूप धारण करके माइकल बैठा है। मंगू ओटले के बगल में दाजी को सूंघ रहा है। दाजी ने बंडी की जेब से दो बिस्कुट निकाले।'तुकड भूख खोबऽज लगञ्ज मंगू'। दाजी ने यह कहते हुए दोनों बिस्कुट खिलाए व उसके माथे को सहलाया। डॉन व गबरू मंदिर के सामने गली में रमलई कर रहे हैं। इस रमलई में अब कुछ बच्चे भी शामिल हो चुके हैं। वे कभी एक दूसरे की पूंछ को पकड़कर खींचते तो कभी एक दूसरे का कान। गांव का जीवन बड़ा ही तरह जीवंत व जादुई रंगों से सराबोर था। चंप्या दाजी का देहांत हुआ। गांव में सन्नाटा छा गया। कैसे पता चला होगा गबरू, डॉन, माइकल व मंगू को? चंप्या दाजी के मरने की खबर के पहले चारों उछलकूद कर रहे थे। और जैसे ही गांव में चंप्या दाजी के मरने की डोंडी पीटी कि मंदिर वाली गली में सिर झुकाए बैठे हैं। उधर चंप्या दाजी के घर से रोने की आवाजें आ रही हैं। वे चारों मुंह ऊंचा करके रो रहे हैं लोकवार्ताओं में कहा जाता है कि कुत्तों को यमदूत दिखाई देते हैं। क्या चंप्या दाजी को लिवाने आए यमदूतों को देखकर वे रो रहे थे? चंप्या दाजी की बेटियों-दामादों, बेटे-बहुओं, नातिन, पोतों को दूर के शहर से आने में देर लग रही थी। लेकिन पूरा गांव एकत्र हो गया था। चंप्या दाजी का मुंह देखकर ही उनके परिजन उन्हें विदा करेंगे। यह तय हुआ। रात को ढोल- मृदंग, झांझ-मजीरे का इंतजाम किया गया। घर के बाहर तिरपाल बिछाई गई। भजन हो रहे हैं। ऐसी दुःख की घड़ी में पूरा गांव एक साथ हो जाता। गांव के वो लोग भी चाहे चंप्या दाजी के परिवार से अनबन थी, दुःख की घड़ी में साथ थे। वे चारों रात भर वहीं रहे। चारों अपने अगली टांगों को आगे की ओर किए व उन पर अपने मुंह को टिकाए बैठे हुए हैं। भागदौड़ में मंगू की पूंछ पर कई बार किसी का पैर पड़ा, मगर उसने 'भौं' तक नहीं किया, काटना तो दूर की बात। शायद चंप्या दाजी के उनके बीच से गुजरने का रंज उन चारों को भी उतना ही था जितना परिजनों व गांव के लोगों को। 'काई लाया था न काई लई जावांगा, जसा आया था वसा चली जावांगा' मानो, भजन वे चारों कुत्ते भी गुण रहे हों। इसका अंदाज उनके चेहरे के भाव से लग रहा था। वे चारों रात को उस जगह को छोड़कर किसी के दरवाजे पर रोटी की आस लगाकर नहीं गए। वे उदास थे। भजनों की गूंज में सुबह हो चली। सूरज के चढ़ने के साथ दूर के रिश्तेदार एक-एक करके आ गए। चंप्या दाजी की टिरक्टी को सजाया गया। राम-नाम सत्य है के साथ चंप्या दाजी को नर्मदा माई को आखिरी बार सौंपने को पूरा गांव चल दिया। मंगू, गबरू, माइकल व डॉन भी शवयात्रा में साथ हो लिए। वे चारों गांव की हर शवयात्रा में शामिल होते रहे हैं। हर किसी की आखिरी विदाई पर वे आंसू बहाते। मनुष्य अपने आंसू अपने गमछे से पोंछकर मिटा सकते हैं लेकिन श्वान जैसे प्राणी की अगली भुजाओं के पंजे इतने सक्षम नहीं कि आंसू के निशानों को मिटा सके। उनकी आंखों में आंसू के सूख चुके निशान दुःख को बयां कर रहे थे। जन्मना-मरना ये जीवन के दो पहिए हैं। जो भी आया है उसे जाना ही है। यही अटल सत्य। मृत्यु की आखिरी रस्म-अदायगी नुक्ते-घाटे के साथ संपन्न हुई। चंप्या दाजी की तेरहवीं में समस्त परिजन, आसपास गांवों के लोग एकत्र हए थे। अब गांव अपना जीवन सधने की तैयारी में अपने कदम उठाने ही वाला था कि खबर आ गई। खबर चंप्या दाजी की तेरहवीं के दिन ही आई। नुक्ते की पंगत में किसी के हाथ में नुक्ती का लड हाथ का हाथ में रह गया। किसी ने पडी का निवाला तोड़कर झोलदार सब्जी में डुबोया ही था कि डोंडी पिट गई। गांव खाली करना है। यह कैसी विडंबना कि तेरहवीं के दिन गांव के उठावने की खबर आई है। गांव के राम्या दाजी अंदर ही अंदर सुबक रहे थे। आंसू बाहर नहीं आ रहे थे।