'अगर आप चाहते हैं कि जमाना आपको चाहेआपसे प्यार करे, तो सबसे पहले जिंदादिल बनिए।' यह कथन है अलबर्ट आइंस्टीन काजी हां, जीवन इसीलिए है कि इसको उत्सव की तरह जिया जाए। रोजमर्रा की जिंदगी में जाने कितने लोग हमारे संपर्क में आते हैंलेकिन उनमें चंद लोग ही ऐसे होते हैं, जो अपने मस्तमौला अंदाज और जिंदादिली से हम पर गहरा असर कर जाते हैं। कुछ ही लमहों की मुलाकात में गुदगुदा देने वाली यादें हमारे पास छोड़ जाते हैं। असल में यह जिंदादिली अपने आप में एक दोहरा वरदान हैखुशमिजाज आदतों वाला व्यक्ति खुद तो तनाव मुक्त रहता ही है, उसके संपर्क में आने वाले को भी अपनी हर परेशानी और दुख हलकेफुल्के से लगने लगते हैं। भारीपन, दबाव और दिमागी बोझ जैसे बिल्कुल खत्म हो जाते हैंइसलिए जिंदादिल मनुष्य अपने प्रसन्नचित्त व्यवहार से परोक्ष रूप में एक समाज सुधारक और परोपकारी व्यक्ति होता है। ऐसा बिलकुल नहीं है कि हंसने और मस्त रहने वालों के जीवन में कोई कष्ट और पीड़ा होती ही नहींजरूर होती है, लेकिन जिंदादिल व्यक्ति हरदम बस रोनी-सी सूरत बना कर अपना दुख और बढ़ाने के बजाय चहक-चहक कर औरों के मन को गुदगुदाने और अपनी पीड़ा को भूल जाने की चेष्टा करते हैं। उसमें सफल भी होते हैं, क्योंकि दिल खोल कर हंसना और अपने जीवन के विविध आयामों से खुश रहना एकमात्र ऐसा अलौकिक आनंद है, जिसके सामने तनाव और परेशानियां कभी हावी नहीं होने पाती हैं। अपने आसपास हमें उदास और मुंह लटकाए रखने वाले लोग भी अवश्य मिल जाएंगे, जो अपनी जरा-सी पीड़ा या कष्ट को बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते फिरते हैं, उसके बाद समाज की सहानुभूति या दया का पात्र बनने में गर्व महसूस करते हैं। मगर ऐसे अवसादी लोग कभी किसी के चहेते या लोकप्रिय नहीं बन पाते हैं। धीरे-धीरे समाज इनसे कटने लगता है और ऐसे लोगों को यदा कदा विभिन्न उपनामों से भी सुशोभित किया जाता है। 'अरे अरे, वह तो निराशाचंद है। उसके पास जाकर अपना कीमती वक्त क्या खराब करना, दूसरों से ऐसी उदास बातें करेगा कि अपना रोना ही रोता रहेगा।' या, 'अरे, उससे फलां फलां मजाक मत करना, वह नीरस है, उसको हंसी- मजाक का मतलब ही नहीं पता। आप कोई हंसी ठिठोली करोगे और वह तो बस गोलगप्पे की तरह अपना मुंह फुला कर बैठ जाएगा।' वह कहावत है न कि 'अगर हंसते हो तो सब आपके पास हंसने चले आएंगे, मगर रोते हो तो यह काम अकेले करो।' ऐसी आदत पाल लेने से न केवल बाहरी व्यक्तित्व खराब होता है, बल्कि एकाकीपन का सामना भी करना पड़ सकता है। फिर ऐसी नीरस और उदास प्रकृति के लोग चाहे कितने भी विद्वान, धनवान, बलवान हों या प्रतिभावान, कोई भी उनके साथ एक पल गुजारना तक पसंद नहीं करता। इसका कारण बताते हुए व्यवहार मनोविज्ञानी हिमगार्ड कहते हैं कि 'हर मनुष्य की मूल प्रवृत्ति हमेशा सहज और मीठे माहौल में रहने की है, यही कारण है कि खुशमिजाज लोग आसानी से लोकप्रिय हो जाते हैं।' राजा कृष्णदेव राय स्वयं गंभीर स्वभाव के थे, पर वे तेनालीराम जैसे हाजिरजवाब और विनोदप्रिय को हर महत्त्वपूर्ण कार्य और यात्रा आदि में अपने साथ ले जाते थे। अकबर के दरबार में बेशकीमती नवरत्न थे, जो एक से बढ़ कर एक बुद्धिमान और कला की खान थे, लेकिन अकबर खुशमिजाज, हाजिर जवाब बीरबल के साथ हास-परिहास में अधिक समय गुजारते थे। वैसे यह बात भी सौ फीसद सच है कि प्रसन्न भी वही रह सकता है, जिसके मन में किसी के प्रति मैल न हो, बदला लेने की कोई भावना न हो, जिसका दिल और दिमाग साफ-सुथरे विचारों से सदैव महकते रहें। हर हाल में प्रफुल्लित और संतुष्ट रहने को आज के चिकित्सा जगत में एक अचक औषधि माना जा रहा है। अपने जीवन को हमेशा लाड़-प्यार देकर जीना एक मानसिक उपचार है, जो कई रोगों को पनपने ही नहीं देती। अधिकतर मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है कि किसी बहाने हंसने, खिलखिलाने से ताजगी और उत्साह बरकरार रहते हैं, तनाव ग्रंथियों को पनपने का खाद-पानी नहीं मिलता, फलस्वरूप व्यक्ति मानसिक रोगों से मुक्त रहता है। चार्ली चैपलिन अपने प्रशंसकों से यही कहते थे कि बात बात पर कहकहे लगा कर हंसना और ताली बजा कर मुस्कुराना ही मुझे इतना जवान रखता है।' हम लोग उदासी और अनचाहे माहौल से नहीं, बल्कि प्रसन्नता की कम खुराक से निराश रहने लगते हैं। अगर सरकार यह कानून बना दे कि दिन में दो बार हंस-हंस कर लोटपोट होना अनिवार्य है, तब शायद दिल खोल कर हंसने में कोई भी कंजूसी नहीं करेगा। इस बात में दो राय नहीं कि यह जीवन बहुत अनमोल है, इसे यों ही काट-काट कर बिताना भला कहां की बुद्धिमानी है। आनंद तो तब है जब हम एक एक पल जिंदगी को मीठी झप्पियां देकर जी लें।